जब महेश पहली बार सुनीता को अपने गांव लेकर आया तब अपनी नयी देवरानी को देखते ही निर्मला की आँखें फटी की फटी रह गयी. शिफॉन की चटख गुलाबी साड़ी में सुनीता किसी चलचित्र की अभिनेत्री से कम नहीं लग रही थी. एक खिलता हुआ गुलाब उसके घुंघराले बालो के सौंदर्य को और भी बढ़ा रहा था और उसके लम्बे नाखूनों पर सुर्ख लाल रंग की नेल पॉलिश चमक रही थी. वहीँ निर्मला के बालों को उसका दो साल का बेटा छोटू गोद में लटके लटके बिखेर चुका था और उसके नाखून, जोकि बर्तन धोते धोते घिस चुके थे, उनमें हल्दी का पीलापन साफ़ दिखाई दे रहा था. अपने बालों को फुर्ती से ठीक करते हुए और अपनी सादी सूती साड़ी की प्लेटें पुनः बनाकर निर्मला ने नयी बहू का आरती के साथ घर की चौखट के इस पार स्वागत कर तो लिया मगर पल्ले में बंधे एक पचास के नोट को उसके हाथ में थमाते हुए यह सोचा की इस शहरी बहू को शगुन देने का क्या फायदा जिसको गृहस्थी क्या होती है पता ही नहीं होगा.
निर्मला का भय निराधार भी नहीं था, सुनीता शहर में पली बढ़ी, एक प्रख्यात कलेक्टर की बेटी थी. वह इतने स्वतंत्र और आधुनिक खयालातों वाली लड़की थी कि अपने सहपाठी से ब्याह रचाने का फैसला भी उसने स्वयं ही कर लिया. महेश और सुनीता की शादी शहर में ही हुयी थी, तब निर्मला नें शादी में शामिल होने से इंकार कर दिया था – यह बोलकर कि छोटू को इतनी दूर ले जाना उचित नहीं होगा, परन्तु मन ही मन तो उसे यह डर खाये जा रहा था कि अगर वह उस शादी में शामिल हुयी तो उसकी स्वर्गवासी सास की आत्मा अपनी बड़ी बहू पर बेहद रोष प्रकट करेगी. लेकिन अब जब शादी हो ही गयी थी तो निर्मला को सुनीता को अपनी देवरानी के रूप में स्वीकारना ही पड़ा, पर देवरानी भी ऐसी जिसकी नाज़ुक कलाई में करछी पकड़ते ही बल पड़ जाता और पानी की एक बालटी उठाने में ही कमर में मोच आ जाती. निर्मला को लगता मानो उसने एक और बच्ची गोद ले ली हो.
निर्मला एक सादे विचारों वाली स्त्री थी, उसको सुनीता के रूप रंग और परवरिश से कोई ईर्ष्या नहीं थी, परन्तु सुनीता का फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना, छोटू को कहानी की किताबें पढ़कर सुनाना और अंग्रेजी के अक्षर लिखना सिखाना निर्मला को बहुत खलता था. निर्मला के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था, अपने पिताजी से उसे यही शिकायत थी कि जहाँ उन्होंने उसके भाइयों की शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीँ अपनी बेटी को कभी भी शिक्षा योग्य नहीं समझा. उसने घर की चौखट लाँघी तो सिर्फ ससुराल में कदम रखने के लिए, जहाँ उसके पढ़े लिखे होने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जहाँ उसका अस्तित्व बस चूल्हा जलाने और कपड़े धोने तक सीमित था.
सुनीता जब व्यापार के हिसाब किताब में महेश की सहायता करती और लेन देन सम्बंधित कार्यों के लिए पास के शहरों में जाती तब निर्मला यह सोचती की अगर वह भी किसी कलेक्टर के घर जन्मी होती तो आज उसके भी तितलियों के समान पर होते. जब सुनीता बाहर जाती तब निर्मला चुपके से उसके कमरे में घुसकर उसके उपन्यासों के पन्नों को बड़ी उत्सुकता से पलटती, कभी स्याही को सूंघती तो कभी अपनी उँगलियों से एक एक अक्षर को सहलाती. उन चंद पलों में उसे न तो कुकर की सीटी सुनाई देती और न ही छोटू की पुकारें, जब पुनः सचेत होती तब खुद पर शर्म भी आती और क्रोध भी – “ऐसे बुत की तरह किताब को देखने से कोई पढ़ना थोड़ी न सीख जाता है” – वह खुद को डांटते हुए रसोई की ओर भागती.
एक दिन सुनीता शहर से जल्दी वापस आ गयी और अपनी जेठानी को किताबों के संदूक का निरीक्षण करते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया. निर्मला झेंप कर बिना कुछ बोले तेज़ी से कमरे के बाहर चली गई. मामला नाज़ुक था, मगर निर्मला की किताब को उलटा पकड़कर एकटक घूरने वाली छवि बार बार सुनीता के ज़हन में आती रहती, इसलिए उसने एक दिन निर्मला से धीमी आवाज़ में पूछ ही लिया – “भाभी आप को पढ़ना सीखना हैं? मैं सिखा सकती हूँ”.
उस दिन से रोज़ शाम को खाना चढ़ाने के बाद निर्मला सुनीता से पढ़ना लिखना सीखने लगी. जिन हाथों को बस सर्फ़ के पानी नें छीला और चूल्हे की गर्मी नें झुलसाया था उन हाथों में जब एक कलम आयी तो लेखनी से न जाने कितने अनकहे शब्द फूट पड़े. निर्मला आधी रात को उठकर चुपके से एक नोटबुक में अपने जीवन के रोचक किस्सों के बारे में लिखती, और इस कार्य से उसे इतनी ख़ुशी मिलती की वह पहली बार एक सम्पूर्ण नारी होने का गर्व महसूस करने लगी.
एक मई की दोपहर, जब घर में छोटू और निर्मला के अलावा कोई नहीं था तब गाँव के साहूकार नें मकान के दरवाज़े पर दस्तक दी. अंदर आकर पानी के दो गिलास पीने के बाद जब साहूकार जी को गर्मी से थोड़ी राहत मिली तब उन्होंने निर्मला को बताया कि वह उसके पति द्वारा लिए गए एक ब्याज का सूत वसूल करने आये हैं और अगर पैसे उसी दिन नहीं दिए गए तो अनुबंध के अनुसार दुगना सूत भरना पड़ेगा. जब साहूकार जी नें बोला की सूत की कीमत दस हज़ार रुपये है तब पहले तो निर्मला सकपका गयी – उसके पति ४-५ दिन के बाद ही लौटने वाले थे और घर में इतनी बड़ी नगद राशि थी भी नहीं – फिर खुद को थोड़ा संभाल कर और जितना लेन देन के बारे में सुनीता से सीखा था वह याद करते हुए निर्मला नें अनुबंध के कागज़ात देखने का अनुरोध किया. साहूकार जी पहले तो इस निवेदन पर हँस पड़े, मगर जब देखा की निर्मला हाथ बढ़ाये खड़ी हैं तो असमंजस से कागज़ात उसके हाथ में थमा दिए. निर्मला पढ़ने में माहिर हो चुकी थी, उसने चंद मिनटों में ही यह समझ लिया की साहूकार एक हज़ार की जगह दस हज़ार रुपये मांग रहा हैं. वह अंदर के कमरे से एक हज़ार रुपये लेकर आयी और साहूकार के हाथ में थमाते हुए बोला “साहूकार जी, अब इस गाँव में भी पढ़ी-लिखी लड़कियाँ रहने लगी हैं, आप हमारी आँखों में धूल नहीं झोंक पाओगे”. साहूकार नें पैसे लिए और झेंपते हुए घर से रवाना हो गया. दरवाज़ा बंद करते हुए निर्मला की नज़र घर की चौखट पर पड़ी – वह चौखट जो निर्मला को पहले बेड़ियों समान लगती थी, आज उसके चातुर्य की दाद दे रही थी.